आज कोरोना काल की लॉक डाउन की समाप्ति के बाद, कई महीनो के पश्चात घर वापसी का यू कहें कि अपने शहर या टाउन वापस आने का मौक़ा मिला है। मेरा शहर में ये घर वापसी आजकल समाचारो में छायी रहने वाली घरवापसी नहीं है। बल्कि यह वापसी समय समय पर होती रहती है। अपने शहर वापस आके मुझे इस बार पता चला कि हमारे लोग कितने वीर (महान वाले) है। जहाँ सरकार और अमिताभ बच्चन जी गला फाड़ फाड़ के कह रहे रहे है, मास्क और दो गज की दूरी। वही मेरे शहर वाले गले मिलके, कंधा से कंधा सटा के, बात करते समय एक दूसरे के मुँह में थूक रूपी द्रव्य का आदान प्रदान करते नज़र आते है। सोशल distancing यहाँ पर इस तरह से तार तार हो रही है जैसे धूप में पड़ा पड़ा पुराना कपड़ा धीरे धीरे फट रहा हो। ख़ैर हम लोगों को कोरोना से डर वही लगता है जहाँ कैमरे लगे हो, जहाँ पुलिस वाले फ़ाइन वाली किताब के साथ खड़े हो। बाक़ी के समय में तो कोरोना से हम नहीं डरते, बल्कि कोरोना हमसे डरता है। इन्ही सब को देखते हुए प्रधानमंत्री जी भी लगातार अपना नारा बदल रहे है, अब ढीलाई नहीं से कड़ाई पर आ गए है।
ख़ैर हम आगे बढ़ते है अपने मेन मुद्दे पर, मेरे बदलते हुए शहर के हालात पर। अब यह बदलाव positive है या negative, यह हमें देखना पड़ेगा। पर बदलाव या अंतर तो ज़रूर आया है भैया। हालाँकि अगर मेरे नज़रिए से आप देखेंगे तो यह बदलाव नकारात्मकता की तरफ़ ज़्यादा झुका हुआ नज़र आता है। अब उदाहरण के लिए देख लीजिए कि आजकल सड़क पर बिना मुँह बांधे और सर ढके चलना मुश्किल हो गया है। पहले जहाँ हम घंटो तक शहर में गली गली तफ़री मारते रहते थे, कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता था। पर अब मजाल नहीं की आप आधे घंटे शहर में घूमे और आपका चेहरा साफ़ सुथरा बचे रहे। मुँह धोते समय उसपर जमीं धूल परत बाई परत ऐसे उतरती है जैसे ASI वाले मोहन जोदाड़ो की परत बाई परत खुदाई करते है। सर के बाल धूल की वजह से इतने कड़क हो जाते है, की हेयर जेल बनाने वाली कंपनिया इस फ़ार्मूले के पीछे पड़ गई है। कि भैया कौन सा ज़ेल आप लगाते है जो आपके बाल इतने कड़क है।
शहर में सड़कों की चौड़ाई और लम्बाई तो उतनी ही है, पर पिछले कुछ सालो में वाहनो की संख्या में इतनी बेतहासा वृद्धि हुई है की उनके बोझ तले सड़कों का जीभ बाहर निकल आता है। कल तक जिन सड़कों से हम फ़र्राटा भर के वापस आ जाते थे अब उनसे वापस आने में कभी कभी घंटो भी लग जाते है।
हालाँकि एक बदलाव यह भी आया है कि जो जगहें पहले कूड़ा फेकने और मोहल्ले का गंदे पानी के storage के रूप उपयोग होती थीं, वहाँ छोटे और बड़े खूबसूरत मकान बन गए है। छोटे छोटे मॉल और बड़ी बड़ी दुकाने भी खुल गई है मेरे शहर में।कल तक चंदू जिस जगह पर चाट बेचता था, वहा एक मॉल बन गया है।चंदू अब अपना ठेला छोड़कर कम्पनी की टी शर्ट और टाई पहन कर उसी दुकान में काम करता है। पहले जहाँ मालिक था वही नौकर बन गया है। पर हाँ अब आमदनी थोड़ी बढ़ कर मिलती है।
अब इन malls में इतनी अच्छी और वराइयटी की चीजें मिलती है जो पहले पूरे शहर में PG कॉलेज से पकवा इनार तक ढूँढने में भी नहीं मिलती थी। अब बहुत सारे छोटे मोटे रेस्टौरंट्स खुल गये है। पहले तो बस इक्का दुक्का ही रेस्ट्रॉंट्स थे वो भी किसी काम के नहीं। अब चायनीज़ , पिज़्ज़ा, बर्गर से लेकर तंदूरी तक की चीजें मेरे शहर में मिलने लगी है। कई सारी ब्रांड की दुकाने है। बड़े बड़े शहरों से उठ कर बढ़िया वाले हेयर सलून भी आ गए है। अब बचवा को हीरो जैसा बाल कटाने के लिए बनारस या लखनऊ नहीं जाना पड़ता, बल्कि घर से बस दस कदम दूर वाले शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में फिरकी मारनी पड़ती है।
भाग दौड़ के बदलाव में शहर तो दौड़ रहा है, बिना दाये बायें देखे बेतहासा।पर ऐसा लगता है इस दौड़ में मेरे शहर के घुटने छिल गए है। शहर में सड़कों पर खूब धूल उड़ती है और मुँह पर आकर N-95 वाले मास्क जैसा तीन लेयर का परत बना जाती है। धूल से ढके मुँह को देख कर घरवाले भी पहचानने से इनकार कर देते है। आँख में धूल झोकने के लिए कपटी दोस्त नहीं मेरे शहर की सड़के और गलिया ही काफ़ी है।सड़के बनी है पर उनके आसपास फुटपाथ ना होने से और समस्या है। घर से निकलते है जल स्नान करके और 2 घंटे बाद वापस आते है धूल स्नान करके।
हालाँकि कुछ बदलाव कई मायनो में अच्छा भी लगता है। बरसो से सोया हुआ शहर विकास के सवेरे में अँगड़ाइया लेने लगा है। पर इस इस विकास में एक टाउन प्लानिंग नाम की चिड़िया भी होती है। जिसको टार्गेट करने में शहर के अधिकारी और नेता विफल रहे है। सड़कों के ऊपर परत पर परत बिछती गई, कुछ गलिया पक्की होती चली गई, पर मोहल्लों से पानी निकासी की व्यवस्था आज तक ढंग से नहीं हो पाई है। बारिश के समय इन गलियों में इतना पानी भर जाता है की उन मुहल्लों के कुछ लोग इंटरनेट पर स्पीड बोट के बारे में सर्च करने लगते है।भई पैसा है, लकड़ी वाला नाव थोड़े ना चलाएँगे। फ़ुर्र से स्पीड बोट चालू होगी और फर्र से गली के उस पार। इन मुहल्लो में पहले घर कम थे, लोग कम थे, सो पानी जो भी निकलता था वही आसपास के ख़ाली ज़मीनो में सूख जाता था। पर अब ऐसा है नहीं, उन ख़ाली ज़मीनो पर नए घर बन गए और पानी अब पहले से 50 गुना ज़्यादा निकलता है, और इन्ही गलियों में मंडराता रहता है। इन पानी वाली गलियों को देख कर ऐसा लगता है की इनको पार करने से ज़्यादा आसान वैतरिनी और करमनासा नदी को पार करना होता होगा। प्रशासन का पूरा ज़ोर है कि इन मुहल्लों का पानी यहा से बाहर निकाल कर बरबाद ना होने दिया जाए।बल्कि घर का पैसा घर में, के ही तर्ज़ पर मोहल्ले का पानी मोहल्ले में ही रहने दिया जाए। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा छोटी मोटी बीमारियाँ ही तो होंगी। उसके लिए शहर में खुले हुए नए प्राइवेट हॉस्पिटल कब काम आएँगे। और डॉक्टर साहब का लड़कवा जो नया क्लिनिक खोला है,उसको भी तो कमाने का मौक़ा मिलना चाहिए।
शहर में बहुत सारे धड़ल्ले से नए नए मैरिज हाल खुल रहे है। सीज़न के टाइम में एक भी आपको मैरिज हॉल ख़ाली मिल जाए तो आप नसीब वाले है। इनकी बुकिंग 1 साल के अडवाँस में होती है। अब गाव के लोगों को भी समाज के दबाव और दिखावेपन में शहर से ही शादी करनी पड़ती है। ख़ैर इससे एक बात तो अच्छी हो गई है, कि घर की शादी में कमर तोड़ काम नहीं करना पड़ता है। सारा चीज़ ये मैरिज हॉल वाले तैयार करके दे देते है। आप आइए enjoy कीजिए और अगली सुबह सब समेट के घर जाइए।
पहले जहाँ बाज़ार के अंदर घूमना फिरना आसान रहता था, अब मजाल नहीं है कि आप पैदल या गाड़ी से उनके अंदर घूम पाए। पहले जहाँ इन बाज़ारों में 4 कारें और 20 रिक्से दिखते थे, अब 50 कारे और 2 रिक्से नज़र आते है। दबा के जाम लगता है। पहले जो शॉपिंग में एक घंटा लगता था, अब उसके लिए एक पूरे दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है। सड़कों की चौड़ाई उतनी ही है जो आज से 20 साल पहले थी, पर गाड़ियाँ, लोगों और दुकानो की संख्या 50 गुनी बढ़ गई है।
शहर बदलना चाहिए पर प्लानिंग के साथ। और शहर का विकास डेमोक्रेटिक होना चाहिए, जिससे की उस शहर के छोटे छोटे लोग भी आनंद उठा सके ना कि सिर्फ़ AC कार में चलने वाले और बड़े घरों में रहने वाले लोग।
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