जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित एक नाटक है स्कंदगुप्त । अगर हम अपने इतिहास में पीछे मुड़कर देखे तो पायेंगे कि स्कंदगुप्त गुप्त साम्राज्य का अंतिम महान सम्राट था, जिसे अपने समय में अपने राज्य के अंदर भयंकर गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा। यह नाटक इसी गृहयुद्ध वाली घटना को केंद्र में रखकर रचा गया है।
कोई भी साहित्यिक किताब अपने आप में उस समय क़ाल का इतिहास अपने आप में समेटे होती है।जैसे उस समय का प्रशासन, राज्य व्यवस्था, समाज में सम्बंध, जनता की स्तिथि, मतभेद तथा विवाद। यह किताब जिस काल खंड को संदर्भ में रखती है, उसमें यवन, शक तथा हूण भारत को चारों तरफ़ से घेर रहे थे। छोटे मोटे युद्ध करके बहुत सारे ज़मीन पर भी क़ब्ज़ा कर चुके थे।बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार बहुत बढ़ चुका था। समाज दो भागो में विभाजित हो चुका था हिंदू और बौद्ध। हिंदुओ और बौद्ध में वैसा ही वैमनस्य था जैसा की आज के भारत में हिंदू और मुसलमानो के बीच में है।इस किताब के माध्यम से इन मतभेदों को अच्छी तरह चित्रित किया गया है। इसमें एक घटना का भी विवरण आता है, जिसमें जानवर की बलि देने पर अड़े हिंदू समाज और बौद्ध समाज के बीच दंगो सी स्तिथि उत्पन्न हो जाती है।
बौद्धों का झुकाव हूणो के प्रति रहता था, जो की अफ़ग़ानिस्तान और उसके आगे के देशों से आते थे। ये हूण लोग भी बौद्ध धर्म से सम्बंध रखते थे। अतः भारत के बौद्धों का झुकाव इनके प्रति ज़्यादा रहता था ना की तत्कालीन देशी हिंदू राजाओं के प्रति।
ऊपर चर्चित गृहयुद्ध स्कंदगुप्त को अपने सौतेले भाई पुरूगुप्त और उसके सहयोगियों से लड़ना पड़ा। गुप्त साम्राज्य में किसी को गद्दी मात्र प्रथम पुत्र होने से ही नहीं प्राप्त होती थी बल्कि योग्यता के हिसाब से निर्णय लिया जाता।यानी की राजा के सारे पुत्रों में जो सबसे ज़्यादा योग्य होता उसे उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाता।
स्कंदगुप्त हालाँकि अपने सौतेले भाई से ज़्यादा योग्य थे फिर भी वो गद्दी के लालच में नहीं पड़े और राजा के आदेशानुसार दूर दूर के प्रांतो में विद्रोह को दबाने के लिए युद्ध लड़ने जाते रहे। राजधानी में अपने ख़िलाफ़ सौतेली माता और भई द्वारा रचे जा रहे षड्यंत्रो पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। उनके सेनापति पर्णगुप्त और मित्र उन्हें बार बार इस बारे में आगाह करते पर वो हमेशा उसे हँसी मज़ाक़ के तौर पर टाल देते थे।
स्कंदगुप्त के पिता कुमारगुप्त जो अब कुछ कुछ वृद्ध हो चुके थे फिर भी उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नहीं चुना था। इस कारण स्कंदगुप्त की सौतेली माता और सौतेले भाई पुरूगुप्त विभिन्न प्रकार के षड्यंत्र रचने में लगे रहते थे। धीरे धीरे वो राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान लोगों को लालच दे देकर अपने साथ मिलते गए। अब इन्हें इंतज़ार था स्कंदगुप्त के राजधानी से बाहर जाने का और इसी बीच सम्राट कुमारगुप्त की मृत्यु का। ऐसा हुआ भी, और उस दिन राजा की मृत्यु होने पर पुरूगुप्त और उनकी माता अपने सहयोगियों की मदद से राज सिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लेते है। और जिन्होंने भी उनके मार्ग में कंटक बनने की कोशिश की उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
गद्दी पर क़ब्ज़ा करने के बाद स्कंदगुप्त की माता को भी क़ैद कर लिया जाता है। और उन्हें भी मौत के घाट उतारने की बात चल रही है। स्कंदगुप्त को तख्ता पलट से उतना दुःख और ग़ुस्सा नहीं आया जितनी अपनी माता के क़ैद होने पर। अपनी बची खूची सेना के साथ वो राजधानी पर हमला बोलते है और अपने हितैषियों के सहयोग से सिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लेते है, और अपनी माँ को भी बचा लेते है। राज्य सभा में सब षड्यंत्रकारियो को मृत्यूदंड का फ़ैसला लिया जाता है। परंतु अपनी माता के अनुग्रह पर सौतेली माता और भाई पुरूगुप्त को दंड मुक्त करके राजधानी से दूर किसी और नगर में महल देकर उन्हें वहा जाने का आदेश दे दिया जाता है। राज्य का एक हिस्सा और कुछ सेना भी पुरूगुप्त के हिस्से में दे दिया जाता है।
इस नाटक में स्कंदगुप्त की प्रेमिका का भी वर्णन है, जो समय समय पर उनकी मदद के लिए हमेशा आगे आयी है। पर्णदत्त जो की स्कंदगुप्त के सेनापति है, उनकी भी मुख्य भूमिका है इस नाटक में।
समय बीतता रहता है, भारत की सीमावो के आसपास हूण और शक और मज़बूत होते जा रहे है, स्कंदगुप्त के सौतेले भाई अभी भी अपनी पुरानी आदतों से बाज नहीं आते है। स्कंदगुप्त को गद्दी से गिराने के चक्कर में पड़े रहते है। इसी समय में हूणो का मगध राज्य पर हमला होता है। राजा अपनी सेना के साथ मुक़ाबले के लिए निकल पड़ते है। आदेश रहता है कि दूसरी तरफ़ से पुरूगुप्त की सेना हूणो का मार्ग रोक के रखी रहेगी। परंतु ऐन मौक़े पर जब ऐसा लगा कि की स्कंदगुप्त जीतने वाला है, पुरूगुप्त ने उनके मार्ग में पड़ने वाले जल बांध को तोड़ दिया। जिससे स्कंदगुप्त सेना सहित पानी के बहाव में बह गए। हूणो की मदद से पुरूगुप्त पुनः राजा बन गये। नए सम्राट हूणो के रहमों करम पर पलने पर मजबूर थे।क्यूँकि सिंहासन तो उन्होंने ही दिलवाया था। हूणो का राज्य कार्य में बहुत दख़ल बढ़ गया था, बहुत सारे महत्वपूर्ण पदों पर हूणो के लोग क़ब्ज़ा कर चुके थे। वो जनता पर भी अत्याचार करते रहते और जिस गाव में जाते वहा बेवजह लूटपाट मचाते रहते।
स्कंदगुप्त जो पानी के बहाव में बह गए थे, समय रहते उनको कुछ गाँव वालों ने बचा लिया था। अब स्कंदगुप्त एक गरीब फ़क़ीर की तरह अपने पूरे राज्य में भ्रमण करते रहते। हूणो द्वारा राजधानी में दख़ल, जनता पर अत्याचार, और गुप्त वंश के अपमान की सारी खबरें उनके कान तक पहुँच रही थी। इन बातों से उनका हृदय जलता था, पर कर भी तो कुछ नहीं सकते थे।उनके पास ना उनके पुराने साथी बचे, ना उनके सैनिक। हालाँकि ऐसी बात नहीं थी, उनके कुछ पुराने साथी और वफ़ादार अभी भी बच गए थे, पुरुगुप्त के राज्य से त्रस्त कुछ लोग, और स्वतंत्रता प्रेमी जनता स्कंदगुप्त को लगातार ढूँढ रही थी।
इन लोगों की मदद से स्कंद गुप्त पुनः अपने पैर पर खड़े हुए, नई सेना बनायी।और एक दिन मगध की राजधानी पर हमला कर देते है। युद्ध भयंकर होता है, परंतु जीत आख़िर में स्कंद गुप्त की हुई। क्यूँकि सारी जनता चाहे बौद्ध हो या हिंदू स्कंदगुप्त के पीछे खड़ी थी।भारत की राज सिंहासन पर फिर से एक योग्य शासक विराजमान होता है।
इस नाटक की समाप्ति यही पर स्कंदगुप्त के पुनर्विजय पर समाप्त होती है। अगर आप और भी किताबों का संक्षेप देखना चाहते है, तो यहा क्लिक करे।