पीढ़िया उपन्यास अमृत लाल नागर जी द्वारा लिखा हुआ अंतिम उपन्यास है। जो की 1990 में उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन पहले प्रकाशित हुआ था। पीढ़िया उपन्यास का सार संक्षेप या सारांश (Summary of Pidhiya -Novel by Amrit Lal Nagar) इस लेख में प्रस्तुत किया जा रहा है।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, पीढ़िया उपन्यास एक ही परिवार के चार पीढ़ियों यानी की Generations के ऊपर आधारित है। और कहानी लगभग 1900 से प्रारम्भ होकर 1986-87 के आसपास तक चलती है। इसमें अंतिम यानी कि चौथी पीढ़ी के युवक द्वारा विभिन्न सूत्रों के माध्यम से अपनी पुरानी पीढ़ी जैसे की परदादा, दादा, और पिता के बारे में जानने की कोशिश की गई है ।कहानी है टंडन परिवार की जिसमें क्रमशः राय साहब बंशीधर टंडन उनके पुत्र डॉक्टर देशदीपक, उनके पुत्र स्वतंत्रता सेनानी बैरिस्टर जयंत टंडन, उनके पुत्र भूतपूर्व मुख्यमंत्री सुमन्त टंडन, उनके पुत्र पत्रकार युधिष्ठिर टंडन आते है।
इस उपन्यास पीढ़िया के द्वारा पत्रकार युधिष्ठिर टंडन अपने दादा जयंत टंडन और उनके पिता डॉक्टर देशदीपक के ऊपर ज़्यादा केंद्रित करते है। इस उपन्यास पीढ़िया की शुरुआत होती है लगभग 1985- 86 में जब तक दिल्ली में सिख दंगे हो चुके है। पंजाब में आतंकवाद अपने चरम सीमा पर है। शाह बानो मामला और अयोध्या मंदिर का ताला खुलने के कारण हिंदू और मुस्लिम जनता में तना तनी का माहौल बना हुआ है। इन सबके परिपेक्ष में उत्तरप्रदेश की राज्य सरकार प्रदेश के महान स्वतंत्रता सेनानी श्री जयंत टंडन जी की जन्म शताब्दी मनाने की तैयारी कर रही है।
जयंत टंडन कांग्रेस के बहुत बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे।जो 1942 में अंग्रेजो के ख़िलाफ़ आंदोलन करते हुए शहीद हो गए थे। जयंत टंडन के पुत्र सुमन्त टंडन तब 18-19 साल के थे। सुमन्त टंडन ने भी आंदोलन में भाग लिया था। और आगे चलकर आज़ाद भारत में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। परंतु अपने ही एक पुराने साथी भैरो प्रसाद वर्मा द्वारा गद्दी के लालच के धोखे के कारण उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया और अब अयोध्या में अपनी छोटे से आश्रम नुमा घर में रहते है।
सुमन्त टंडन के पुराने साथी भैरो प्रसाद वर्मा बहुत ही मौक़ा परस्त और राजनीति के कुटिल और दुष्ट खिलाड़ियों में से एक थे।अपने छोटे से फ़ायदे के लिए हिंदू मुसलमान विवाद और दंगा भड़काने से पीछे नहीं हटते थे। उनके ऐसे ही एक दुश्चक्र का पर्दाफ़ास युधिष्ठिर ने किया था, जब भैरो वर्मा किसी की ज़मीन क़ब्ज़ा करने के चक्कर में यह कहकर हिंदू मुस्लिम विवाद फैलवा दिया कि उस ज़मीन के अंदर किसी पीर की कब्र है। ये भैरु जब 18-19 साल के थे तो जयंत टंडन को 1942 के आंदोलन में भूमिगत होने में उनकी मदद करी थी। और उसी आंदोलन का बोया हुआ आजतक खा रहे है।
भैरो वर्मा जो सुमन्त टंडन की पत्नी के मुह बोले भाई थे, परंतु जब राजनीति में मुख्यमंत्री पद का अवसर दिखाई दिया तो सुमन्त टंडन को ऐसा धोखा दिया कि उनका परिवार आजतक उसे भुला नहीं पाया है। सुमन्त टंडन के दो विवाह हुए थे, उनकी पहली पत्नी से तीन पुत्र थे। उनकी दूसरी पत्नी श्रीमती कौशल्या टंडन थी, जिनका विवाह सुमन्त टंडन से तब हुआ जब उनकी पहली पत्नी का निधन हो गया था। युधिष्ठिर, सुमन्त टंडन की दूसरी पत्नी के ही पुत्र थे।युधिष्ठिर पेशे से पत्रकार है, जो लखनऊ से प्रकाशित होने वाले टाइम्ज़ अख़बार में कार्यरत है। जावेद जो उसी अख़बार के लिए काम करते है, उनके बहुत ही घनिष्ठ मित्र है। इन दोनो बातचीत के माध्यम से लेखक ने इसमें तत्कालीन हिंदू मुसलमान विवादों को बहुत ही अच्छी तरह से उकेरा है। ऐसा लगता है की ये मुद्दे और बात चीत तो आज भी 2020 में भी चली आ रही है। इन दोनो की बात चीत से लगता है, आज के 2020 में दो हिंदू और मुस्लिम दोस्त बात कर रहे है। कैसे वो समाज में चली आ रही धारणावो पर अपने विचार रखते है। उन दोनो के ऑफ़िस में भी हिंदू और मुस्लिम कर्मचारी कार्यरत है और उनके बीच में हिंदू – मुसलमान को लेकर तीखी बहस होती रहती है। कोई इसपे कटाक्ष मरता है तो कोई उसपे।
सो इस साल जयंत टंडन की जन्म शताब्दी के साल में उनके पोते पत्रकार टंडन अपने दादा जयंत टंडन जी को लेकर एक उपन्यास लिखना चाहते है। युधिष्ठिर टंडन के हाथ में अपनी पुश्तैनी हवेली की तिजोरी हाथ लगती है। इस तिजोरी में उनको मिलता है, जयंत टंडन के द्वारा लिखे हुए बहुत सारे पत्र, और उनकी अपनी निजी डायरी। इस डायरी और पात्रों को देख कर पत्रकार टंडन के होश उड़ जाते है। उनके दादा जी को इतना महान नेता और स्वच्छ छवि का नेता माना जाता है। परंतु इन पत्रों और डायरी को देखकर ऐसा नहीं लगता है।
पत्रकार टंडन अपने पिता सुमन्त टंडन को इन पत्रों को दिखाते है। सुमन्त टंडन ने कहा कि मुझे ये सब मालूम है। और तुम्हें उनके बारे में लिखते समय इन चीजों को खुल कर लिखना चाहिए। इसमें छुपाने वाली कोई बात नहीं है। दुनिया को पता लगना चाहिए कि इतनी सारी कमियाँ होते हुए भी एक इंसान कैसे महान बन सकता है। मेरे पिता में बहुत सारी कमियों के बावजूद वो एक सच्चे देशभक्त थे।
पत्रकार युधिष्ठिर टण्डन कहानी शुरू करते है, जयंत टंडन के पिता श्री देशदीपक टंडन जी से। देशदीपक शहर के प्रतिष्ठित डॉक्टर है। और छोटे छोटे लोगों की मदद के लिए भी हमेशा तत्पर रहते है। ऐसे ही एक समय में एक विधवा स्त्री को सेठ के क़र्ज़ के चंगुल से बचाया था। अंग्रेजो की जी हुज़ूरी तो नहीं करते थे, परंतु उनके ख़िलाफ़ कुछ बोलते या लिखते भी नही थे। साल लगभग 1900 के आसपास का है जब स्वदेशी आंदोलन धीरे धीरे ज़ोर पकड़ रहा था। जयंत टंडन शुरू से अंग्रेजो के विरोधी स्वभाव के थे और इन आंदोलनो में बाद चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे। एक मंडली भी बना रखी थी जो जगह जगह विरोध प्रदर्शन और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करती रहती थी। जयंत पढ़ने लिखने में भी काफ़ी मेधावी थे। परंतु जयंत टंडन का लंगोट लड़कियों के मामले में थोड़ा ढीला था। कई बार इधर उधर फिसल चुके थे। ऐसे ही एक बार उन्होंने प्रेम में एक मुस्लिम लड़की को गर्भवती कर दिया। और जब उसने जयंत से शादी करने के लिए कहा तो, वो बैरिस्टर की पढ़ाई करने के बहाने इंग्लैंड भाग गए। इंग्लैंड में भी उनके दो तीन औरतों से सम्पर्क बने। राजनीतिक स्तर पर भी वह पर ऐक्टिव रहे। बड़े बड़े अंग्रेज अधिकारीयो और छात्रों से जान पहचान बढ़ाया जो आगे चलकर भविष्य में काम आने वाले थे।
जयंत टंडन पढ़ाई करने के बाद भारत वापस आते है, परंतु उनके आने से पहले ही उनके पिता देशदीपक जी का निधन हो गया। जयंत टंडन के छोटे भाई को पढ़ाई में मन नहीं लगता था, अतः वो अपने आप को स्वदेशी वस्तुओं के व्यापार में लगा दिया था। इनकी शादी पहले ही हो चुकी थी। और उनकी पत्नी का उनके माता पिता से नहीं पटती थी, अतः वो अपनी पत्नी समेत कानपुर में ससुर के यहा घर जमाई बन कर रहते थे। छोटे भाई के बाद बड़े भाई जयंत टंडन का विवाह होता है।
जयंत टंडन की अपनी पत्नी अपनी सास की बहुत प्रिय है। परंतु जयंत टंडन से उनकी बनती नहीं है। जयंत की वकालत भी बहुत अच्छे तरीक़े से चल पड़ी है। बड़े बड़े राजाओं और नवाबों के केस उनके पास आते रहते है। और साथ ही साथ में महत्वपूर्ण सरकारी केसेस भी। इनके समकालीन जवाहर लाल नेहरू है। जयंत और नेहरू के आपस में अच्छे सम्बन्ध है। ये दोनो कांग्रेस की गरम विचार धारा के समर्थक थे। जयंत टंडन की अपने क्षेत्र में एक अच्छे नेता के रूप में पहचान बनानी शुरू हो चुकी थी।
इसी दौरान उनकी मुलाक़ात श्रीमती अस्थाना से हुई। ये मैडम अस्थाना आज भी ज़िंदा है। जिनसे युधिष्ठिर टंडन दो चार बार मिल भी चुके है इस किताब को लिखने के सम्बन्ध ने। कहा ये जाता है की जब उनके पति का निधन हुआ तो भी वो सुहागन की तरह रहती थी। उन्होंने विधवा वस्त्र जयंत टंडन की शहादत के बाद ही पहनना शुरू किया था। जयंत टंडन और श्रीमती अस्थाना के बीच में प्रेम सम्बन्ध विकसित हो चुका था। चुकी दोनो एक ही राजनीतिक क्षेत्र में साथ साथ काम करते रहे अतः उनका मिलना जुलना जारी रहा। उन दोनो का एक पुत्र भी हुआ था। श्रीमती अस्थाना ने युधिष्ठिर टंडन को बताया कि उनसे मुलाक़ात के बाद जयंत टंडन का किसी स्त्री के साथ सम्बंध नहीं रहा।
इस उपन्यास पीढ़िया में स्वदेशी आंदोलन, ख़िलाफ़त आंदोलन, काकोरी कांड, नमक बनाओ आंदोलन, और उस समय के तत्कालीन क्रान्तिकारीयों का सजीव वर्णन है। कहानी के माध्यम से इन घटनाओं को लेखक ने इतनी अच्छी तरह से समाहित किया है की ऐसा लगता है कि वो सारी घटनायें और आंदोलन इसी उपन्यास पीढ़िया के पात्रों के साथ घटित हो रही है।इसमें 1942 के आंदोलन को इस किताब के पात्रों से जोड़कर बहुत अच्छी तरह पेश किया गया है। जैसे कि सारे नेताओ का गिरफ़्तार होना, ग़ाज़ीपुर और बलिया का 3-5 दिन के लिए आज़ाद होना। ग़ाज़ीपुर और बलिया में जनता ने वहाँ के सरकारी कार्यालयों और थानो पर क़ब्ज़ा कर के तिरंगा फहरा दिया था। पुनः क़ब्ज़ा करने के लिए बड़ी संख्या में सेना भेजी गई। जिसमें बहुत सारे सत्याग्रही पुलिस की गोलियों का शिकार होकर शहीद हो गए।
इसी 1942 के आंदोलन में जयंत टंडन घूम घूम कर जनता में आक्रोश जगा रहे थे। छुप छुप कर किसी शहर में पहुँचते और जनता को सम्बोधित करके ग़ायब हो जाते। कई दिनो तक किसी गाँव में भूमिगत होकर छुपे रहते और जब मौक़ा मिलता फिर जनता के सामने आ जाते। पुलिस, CID और उनके बीच लगातार लुका छीपी का खेल चल रहा था। उनके पुत्र सुमन्त टंडन को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था। उनके हर छुपने के ठिकानो पर CID के जासूस पहरे पर लगे रहते। इन सबके बीच जयंत टंडन फ़क़ीर का वेष बनाकर अपने घर भी पहुँचे, अपने नवजात पोते को देखने और आशीर्वाद देने के लिए।
पुलिस को खबर मिल चुकी थी अतः रात को ही उनको अपने घर से भागना पड़ा। भागते भागते वो अपने शहर में ही किसी अनजान ठिकाने पर पहुँच गये। वहाँ पर कोई थाली बजाकर गली गली में अनाउन्स कर रहा था- शहर के फ़लाना पार्क में एक विरोध रैली आयोजित की जा रही है। बंबई से कोई वक्ता आ रहे है। सबसे अनुरोध है कि बड़ी से बड़ी संख्या में आए, और हाँ जैसे ही पुलिस आए सब लोग नौ दो ग्यारह हो जाएँगे। पुलिस के हाथ में नहीं पड़ना है। जयंत टंडन भी यह सब सुन रहे थे। पुलिस पीछे होने के बावजूद वो अपने आपको रोक नहीं पाए रैली में जाने से।
सुबह रैली आयोजित हुई।बड़ी संख्या में लोग आए थे और भारत माता की जय के नारे चारों तरफ़ गूंज रहे थे। बम्बई के वक्ता मंच पर चढ़े और बोलना प्रारम्भ किया। वक्ता महोदय की लम्बी लम्बी और रणनीतिक बातें जनता के समझ से ऊपर जा रही थी। जनता में बोरियत फैलनीं लगी और उत्साह धीरे धीरे ठंडा होने लगा, नारे की आवाज़ें धीमी पड़ती गई। जयंत टंडन यह सब होते देख रहे थे। उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ।मंच पर तेज़ी से चढ़े, माइक छिनी और बोलना शुरू कर दिया।
नमस्कार….. मैं इस फ़क़ीर के भेष में आपके सामने आपका जयंत टण्डन हूँ। जयंत टंडन का नाम सुनते ही जनता में करेंट सा दौर गया। जनता तेज आवाज़ में देशभक्ति नारों से अपने नेता का स्वागत कर रही थी। और जयंत टंडन ने भाषण देना प्रारम्भ कर दिया। जोशीली आवाज़ और जनता के साथ कनेक्ट ने कुछ अलग ही समा बांध दिया। तभी किसी ने आवाज़ दी की पुलिस ने पार्क को घेर लिया है, जिनको मौक़ा मिले भागना चालू करे। परंतु जयंत टंडन के सम्मोहन में बधी जनता ने कदम टस से मस नहीं किया। जयंत भी लगातार बोल बोल कर जनता का जोश बढ़ा रहे थे। तभी एक गोली चली और जयंत के उठे हुए हथेली में जाकर सन्न से लगी। जनता में हाहाकार मच गया मगर जयंत नहीं रुके। दूसरी गोली चली और उनके घुटने को चीरते हुए आर पार निकल गई। तीसरी गोली निकली और जयंत के खुले हुए जबड़े को चीरती हुई निकल गई। जयंत मंच से नीचे गिर चुके थे। हाथ पाँव धीरे धीरे ठंडे पड़ते गए। पर उनके मुँह से निकलता आख़िरी शब्द भारत माता की जय पर जाकर ही समाप्त हुआ।
इस उपन्यास की मुख्य कहानी यही तक है। बाक़ी और सारे पात्रों की कहानियाँ हैं, पर यह लेख काफ़ी आगे खींच जाता।