नौरोज़ी – भारतीय राष्ट्रवाद के अग्रदूत किताब ( Naoroji- pioneer of indian nationalism) को लिखा है दनियार पटेल ने। दनियार साउथ कैरोलिना विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह किताब दादा भाई नौरोज़ी के ऊपर लिखी गई है। जिनको सम्मान से The grand old man of India भी कहा जाता है। इस लेख में हम नौरोज़ी- भारतीय राष्ट्रवाद के अग्रदूत किताब संक्षेप ( Naoroji- pioneer of indian nationalism Book Summary) में देखेंगे। यह किताब जहां तक मुझे लगा biographical तो नहीं है परंतु हाँ उनके जीवन के महत्वपूर्ण पहलू जो की राजनीतिक रहा है। उसके बारे में विस्तार से लिखा गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत पत्राचार को, ब्रिटिश दस्तावेज, और कई सारी किताबों का संकलन करके, यह किताब लिखी गई है।
इस नौरोज़ी भारतीय राष्ट्रवाद के अग्रदूत किताब ( Naoroji- pioneer of indian nationalism)को 6 चैप्टर में बाटा गया है-
1- युवा दादा भाई और युवा बॉम्बे
2- ग़रीबी और राजकुमारों के बारे में
3- इंग्लैंड की संसद में प्रवेश एक सदस्य की तरह
4- साम्राज्य के हृदय में बैठा एक भारतीय दूत
5- सेंट्रल फिंसबरी कैम्पेन – अंग्रेज़ी संसद में प्रवेश हेतु अभियान
6- मेम्बर फ़ोर इंडिया – भारत का सदस्य
7-स्वराज
हम इन्ही चैप्टर्स की मदद से इस किताब को संक्षेप में समझने की कोशिश करेंगे।
दादा भाई नौरोज़ी धर्म से पारसी थे। इनके पुरखों का परिवार गुजरात में रहता था, और वहा पड़े अकाल की वजह से उनके दादा जी को बॉम्बे आना पड़ा। परिवार में पैसे की काफ़ी तंगी थी। परंतु पारसी समुदाय की वजह से उनके धर्म के लोग कुछ ना कुछ करके एक दूसरे पारसी परिवार की मदद कर दिया करते थे। 1825 में दादा भाई नौरोज़ी का जन्म बॉम्बे में हुआ। बचपन से ही ये पढ़ने लिखने में तेज प्रविर्ति के थे। 1830 में इनका प्रवेश बॉम्बे नेटिव एजुकेशन सोसायटी में हुआ प्रारम्भिक शिक्षा हेतु। ये नेटिव एजुकेशन सोसायटी भारत के ही धनाढ्य व्यापारी और राजाओं के मदद से चलते थे। जिसमें अंग्रेजो के टक्कर की शिक्षा दी जाने की कोशिश की जाती थी। अंग्रेज़ी सरकार इस समय में बहुत बड़े बड़े बोल के साथ कि भारतीय लोगों को सभ्य बनाना है, उनका जीवन स्तर ऊपर उठाना है, की बात करती थी फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में ना के बराबर पैसा खर्च करती थी। ये बड़े बड़े कॉलेज, भारतीय सेठ और राजपरिवारों के द्वारा दिए गए धन के दम पर ही चलते थे।नौरोज़ी के परिवार द्वारा zoroastrian पुजारी की भी शिक्षा दीक्षा दी गयी परंतु उनका मन इनमे नहीं लगा। 1840 में बॉम्बे के प्रसिद्ध कॉलेज एलफिस्टन कॉलेज में इनका प्रवेश हुआ। और इससे सिक्षा प्राप्त करने के पश्चात 1845 में मात्र 20 साल की आयु में उन्होंने उसी कॉलेज में सहायक मास्टर का पद स्वीकार कर लिया। अभी तक इन विद्यालयों में मुख्यतः अंग्रेज अध्यापक ही पढ़ाने का काम करते थे। और कुछ एक या दो बहुत ही विद्वान भारतीय।।परंतु प्रोफेसर के पद पर अंग्रेज या भारत के बाहर से आए नागरिक ही काम सम्भालते थे। 1854 में गणित और दर्शन के प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त किए जाने वाले वे प्रथम भारतीय बने। 1849 और 54 में इन्होंने दो पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया था। जो भारत की वर्तमान समाजिक स्थिति और राजनीतिक स्थिति पर चर्चा को सामने लाने का काम करती थी।
युवा बॉम्बे इन्ही भारतीय सहयोग से चलते कॉलेज से निकले युवाओं से बन रहा था। जो आगे चलकर महिला और कमज़ोर वर्ग के लिए नए नए स्कूल, नयी नयी पत्रिकाएँ चलाना प्रारम्भ किया। जो अध्यापन का काम मुख्यतः यूरोपीयन जनता सम्भालती थी, धीरे धीरे इन नव युवकों ने अपने कंधे पर लेना शुरू कर दिया। युवा बॉम्बे उसी तर्ज़ पर बन रहा था जैसे युवा बंगाल बना था। इस कार्य में इन लोगों को ब्रिटिश शासन से कोई सहायता ना मिलती। जबकि भारतीय सेठ और रजवाड़े इन लोगों की स्कूल स्थापित करने में धन से मदद करते रहते।
1855 में दादाभाई Cama परिवार के व्यापार को सम्भालने के लिए लंदन चले गए। कामा परिवार भारतीय पारसी व्यापारी परिवार थे। ये अपने कपड़ों का व्यापार इंग्लैंड में फैलाना चाहते थे। जिसके विस्तार हेतु नौरोज़ी लंदन गए।
लंदन में भी वो ब्रिटिश सरकार की शिक्षा नीति और उस पर कम खर्च को लेकर, उनकी लगातार आलोचना करते रहे। कि कैसे ब्रिटिश सरकार इतना टैक्स वसूलती है और उसका नगण्य खर्च शिक्षा और विद्यालयों पर करती है। उन्होंने अपनी आलोचना को सरकारी आँकड़ो के दम पर गिनाया। उन्होंने बताया कि 114 बच्चों में से मात्र एक भारतीय बच्चा प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करता है।इसके सम्बंध में इन्होंने ब्रिटिश संसद को एक petition भी दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय ग़रीबी और अशिक्षा एक दूसरे के पूरक है। और अंग्रेज सरकार भारत से इतना धन कामने के बाद भी इस पर कौड़ी भर खर्च नहीं करती है।
जब दादा भाई नौरोज़ी लंदन में प्रवास कर रहे थे, तब मलाबरी बहरामजी भारत में रहकर इनके दाहिने हाथ के रूप में काम करते थे। भारत में भी जब राजा और उनके राज्य में कोई समस्या उत्पन्न होती तो दादा भाई अंग्रेज़ी हुकूमत और उनके बीच पुल की तरह काम करते थे। भारतीय नागरिक और उनके समस्याओं पर petition बना के ब्रिटिश सरकार और संसद में पहुँचाया करते थे। यानी की जो कोंग्रेस्स 1885 के बाद करना चालू की दादा भाई 1850-55 से ही यह काम करना प्रारम्भ कर चुके थे।
1870 के आसपास इन्होंने ब्रिटिश सरकार की भारत के प्रति ज़िम्मेदारी, भारत की ज़रूरतें और उनका साधन नामक पेपर प्रकाशित किया। और इसी के पास उन्होंने Drain of Wealth Theory दी, जिसमें उन्होंने बताया की कैसे कैसे भारतीय पैसा बाहर जा रहा है, और कभी लौट के वापस नहीं आ रहा है। भारत दिन पर दिन और गरीब होता जा रहा है। भारतीय सिपाही भारत के पैसों से इंग्लैंड का युद्ध लड़ रहे है। भारत अपनी ग़ुलामी हेतु ब्रिटिश अधिकारियों को अपने ख़ज़ाने में से तनख़्वाह दे रहा है। यहा तक माना जाता है कि कार्ल मार्क्स ने भी इनकी drain of wealth वाली theory पढ़ी और उससे काफ़ी प्रभावित हुए। नौरोज़ी के लेखों को बहुत सारे देशों के नागरिकों द्वारा उनके आंदोलनो में पढ़ा गया।
उन दिनो भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा इंग्लैंड में ही आयोजित होती थी। जिसके स्वरूप भारत के नागरिक प्रशासनिक सेवाओं में चयनित नहीं होते थे।और केवल अंग्रेज ही अधिकारी बन कर आते थे। दादा भाई ने इन परीक्षाओं को भारत में कराने हेतु बहुत ज़ोर उठाया। जिससे की भारतीय लोगों को मौक़ा मिले।और भारतीय ख़ज़ाने से पैसा अंग्रेजो के तनख़्वाह के रूप में भारत के बाहर ना जाए।
1873 में भारत लौटकर 2 साल के लिए बड़ौदा राज्य की दीवानी सम्भाली, जो प्रधानमंत्री पद के बराबर होता है। वहा के दीवान रहते हुए दादा भाई ने बहुत ही साहसिक और सुधार वाले कदम उठाए। और अंग्रेजो को यह भी साबित कर दिया कि भारतीय अपने आप को शासित करने में सक्षम है।वहा के राजा और उनके चमचों द्वारा इनकी बड़ौदा की जनता के बीच में प्रसिद्धि पसंद नहीं आई। इनके उठाए कदमों से राजा और उनके दरबारियों की काली कमाई पर चोट पहुचने लगी। राजा के साथ विवाद और बढ़ने पर 1875 में इन्होंने दीवान पद से इस्तीफ़ा दे दिया और इंग्लैंड लौट आए।
1892 में ये सेंट्रल फिंसबरी नामक जगह से ब्रिटिश सांसद चुने गए। शायद दादा भाई प्रथम भारतीय थे ब्रिटिश संसद में प्रवेश करने वाले। लेकिन यहा पर भी उन्हें स्थानीय रूढ़िवादी अंग्रेज संसदो द्वारा विरोध का सामना करना पड़ा। वहा के प्रधानमंत्री ने उन्हें काला कह कर सम्बोधित किया और कहा कि वो अंग्रेज़ी संसद का सदस्य बनने के लायक़ नहीं है। कुछ अंग्रेज संसद जो liberal विचारधारा के थे, वो इनका समर्थन भी करते थे। आयरलैंड के राजनीतिक नेताओ से नौरोज़ी के अच्छे सम्बंध बन गए थे।
ब्रिटिश राजनीति में रहते हुए इन्होंने दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के चलने वाले आंदोलनो और उनके नेताओ से सम्पर्क स्थापित किया। जैसे की Feminism आंदोलन, socialist आंदोलन, anti-race आंदोलन, आयरलैंड में चलने वाले आंदोलन। इन संपर्को की वजह से भारत की दुर्दशा की कहानिया पूरे विश्व में फैली। कई सारे देश के महतवपूर्ण संपादकों के साथ दादा भाई के अच्छे सम्बंध थे। जिससे उनके अखबारो में भारत की वर्तमान हालात और राजनीतिक विचार प्रकाशित होते थे।
केवल भारत ही नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन किसी भी देश के नागरिक की सुनते थे और उनके अनुरोधों को ब्रिटिश शासन तक पहुँचाते थे। जैसे की दक्षिण अफ़्रीका, फ़िजी इत्यादि देश के लोग भी ब्रिटेन में इनको अपना प्रतिनिधि मानते थे। महात्मा गांधी भी पत्राचार के माध्यम से इनसे सहयोग और सलाह माँगा करते थे। 1893 में दादा भाई नौरोज़ी भारत आए थे। बॉम्बे से लेकर कराची तक की यात्रा रेल द्वारा की गई। जगह जगह स्टेशन पर लम्बी लम्बी भीड़ लगी रहती, लोग अपने मुख्य नेता के दर्शन के लिए घंटो घंटो इंतज़ार करते।
1906 में जब कांग्रेस में गरम विचार धारा और नरम विचार धारा वाले लोगों की वजह से कांग्रेस दो भाग में बटने वाली थी। तब दादा भाई को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया।इनके नाम पर सबकी सहमति थी। गरम दल वाले इनको अपनी विचार धारा का मानते थे क्यूँकि स्वदेशी, और भारतीय अर्थवस्था, और स्वराज को लेकर उनके विचार आपस में मिलते थे। नरम विचार धारा वाले इनको अपना मानते थे क्यूँकि ये सबको मिलकर चलने वाले व्यक्ति थे, ब्रिटिश राजनीति में बड़े बड़े लोगों से इनकी जान पहचान थी और बहुत सारे मुद्दे बिना आंदोलन के ही सुलझा लेते थे।
1907 में इन्होंने ने active राजनीति से सन्यास ले लिया और रिटायर्ड जीवन व्यतीत करने लगे। 1915 साउथ अफ़्रीका से वापस आने के बाद महात्मा गाँधी इनसे इनके घर पर मिले थे। जून 30, 1917 को दादा भाई का बॉम्बे में कंबाला हिल में निधन हो गया।