book shorts- राग दरबारी उपन्यास का प्रकाशन १९६८ में हुआ था। इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। सन १९८६ में इस पर एक धारावाहिक का निर्माण भी हुआ जो दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था। इस उपन्यास के हर paragraph में हस्यवंग समाया हुआ है।राग दरबारी उपन्यास के माध्यम से भारतीय समाज में गहरी जड़े जमा चुके भ्रष्टाचार, ग़बन, धोखाधड़ी और वंशवाद को बाहर लाया गया है। याद रखिए उस समय भारत को आज़ाद हुए कुछ एक दस साल ही हुए थे। इस किताब को पढ़ने के बाद आपको लगेगा तो अर्रे ये तो आज भी हो रहा है। यानी कि ये सब समस्यायें कोई नई नही है। बल्कि भारतीय समाज में इनकी जड़े गहरी तक जमी हुई है। नीचे के आने वाले paragraphs में हम राग दरबारी book shorts के बारे में पढ़ेंगे।
समय कल है लगभग १९६५ के आस पास। जगह है गोंडा शहर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित के गाव। राग दरबारी book short के लगभग सारे पात्र इसी गाव से जुड़े हुए। इसी गाँव में एक सरकारी स्कूल होता है। जिसके मैनेजर होते है, वैद्य जी।स्कूल के कमरे बनाने सरकारी फंड तो आते थे, एक नई ईंट नज़र तो नही आती थी। पर पता नही कैसे वैद्य जी के घर में नए नए कमरे जुड़े चले जाते थे। वैद्य जी उस गाव के नेता थे, उनके अनुसार स्वतंत्रता सेनानी। गाँधी जी और बिनोवा भावे के कंधे से कंधे मिलाकर चलने वाले। पर इस बात का सबूत देने वाला कोई गाव में न था। सो जो मन में आए बनाते जाओ। वैद्य जी नेतागीरी के साथ ही साथ नाम के अनुरूप थोड़ा बहुत वैद्य का भी काम करते थे। वैद्य जी के दरवाज़े पर रोज़ सुबह शाम भीड़ लगती थी। जिसमें दबा के भांग पीसा जाता था और चेला चपातियों में प्रसाद स्वरूप बाटा जाता था। उसी गाव में एक को आपरेटिव यानी की सहकारी था। उसके भी मैनेजर वैद्य जी ही थे।अभी अभी कुछ दिनो पहले ताज़ा ताज़ा ग़बन हुआ है सहकारी में। इसकी खबर गाव से अभी बाहर नही गई थी। पर वैद्य जी ने खबर निकलने से पहले ही तिकड़म भिड़ा लिया था, कि इस मामले को कैसे tackel करना है।
गाव में वैद्य जी के चेलाओं की फ़ौज थी। चेलाओं में एक चेला थे, प्रिन्सिपल साहब, ये उसी सरकारी स्कूल के प्रिन्सिपल थे। स्कूल से ज़्यादा वैद्य जी के दरवाज़े पर इनका समय बीतता थे। स्कूल में बच्चों की हाजरी लगे या ना लगे, परंतु अपनी हाजरी वैद्य जी के दरवाज़े पर ज़रूर लगाते थे। इस चाटुकारिता के दम पर उन्होंने स्कूल में मास्टरों के पदों पर अपने रिस्तेदारो की फ़ौज खड़ी कर रखी थी। हालाँकि इनके ख़िलाफ़ भी मास्टर लोगों का एक अलग गुट बन गया था। जिसकी अगुवाई करते थे खन्ना मास्टर और साथ में थे मालवीय मास्टर और अन्य कुछ मास्टर। इन दोनो गुटों के बीच बीच में हमेशा खींचा तानी चली आती थी। एक पक्ष वैद्य जी के आशीर्वाद से सारा मलाई खाए जाता और दूसरा पक्ष को खाने को मिलती थी अपमान और गाली। इस स्कूल की मैनज्मेंट कमिटी का चुनाव पिछले १० -१५ सालो से नही हुआ था। हालाँकि वैद्य जी को इसमें मलाल ज़रूर था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का पालन नही हो पा रहा। पर यह डर प्रक्रिया के पालन से ज़्यादा ज़िला अधिकारियों द्वारा मिलने वाली डाट डपट का ज़्यादा था। जिस वैद्य जी ने झगा झग अपनी छवि बना रखी है। उसी पर कोई सरकारी अधिकारी पान थूक कर चला जाएगा तो बहुत बुरा होगा। कमिटी का चुनाव तो करवाना था पर गद्दी फिर से किसी क़ीमत पर वैद्य जी को ही चाहिए थी। भले ही इसके लिए बाहुबल या तमंचे का इस्तेमाल किया जाए।(book shorts)
वैद्य जी के दरवाज़े पर बैठकी में शामिल होने वाले थे, एक छोटे पहलवान, छोटे पहलवान के पिता, सनीचर, बद्री पहलवान और लँगड़ । सनीचर का काम था, भांग पीसना और सबको परोसना। सनीचर कुछ दिनो में वैद्य जी के कृपा से गाव का प्रधान बनने वाला था। हालाँकि वैद्य जी चाहते तो प्रधान वो भी बन सकते थे। परंतु एक व्यक्ति और एक पद के कुटिल समर्थक थे। वो तो स्कूल और सहकारी का मैनेजर बन के ही खुश थे। परंतु सहकारी के मैनेजर का पद जनता ने उनके पीठ पर लाद दिया। और रही बात सनीचर की तो उनका क्या- प्रधान तो वो बन रहे है, पर काम तो मेरा ही होगा। ससुर प्रधान बने या प्रधान मंत्री पीसेंगे तो यहाँ भांग ही। कटी फटी बनियान और चड्डी में घूमते सनीचर को इससे ज़्यादा कुछ आता भी नही था।
लँगड़ अपनी कचहरी में अलग ही लड़ाई लड़ रहा था। उसके अनुसार सच की लड़ाई। एक बार लँगड़ ने अपने खेत का नक्सा बनवाने के लिए कचहरी में अर्ज़ी डाली थी। क्लर्क ने उसके बदले में पाँच रुपए माँगे। परंतु लँगड़ ने बोला तीन रुपए से ज़्यादा ना दूँगा। क्लर्क ने बोला पाँच से कम ना लूँगा। इसी वाद विवाद में बात आगे बढ़ गई। लँगड़ ने क़सम खाई कि बिना एक पैसे दिए नक्सा पास कराऊँगा। और उधर क्लर्क ने भी क़सम खाई कि बिना पैसे लिए नक़्शा पास करूँगा वो भी पूरे नियम क़ायदे के साथ। इसी नियम क़ायदे के चलते लँगड़ की अर्ज़ी कई सालो से ख़ारिज होते चली आ रही थी। कभी कामा के चलते तो कभी फ़ुल स्टाप के चलते। कभी फ़ॉर्मैट के चलते तो कभी समय पर नोटिस का ना जवाब देने के चलते। हालाँकि यह नोटिस कुछ घंटो के लिए ही कचहरी में लगती थी।
वैद्य जी के दो पुत्र थे। बद्री पहलवान और रुप्पन बाबू। बद्री पहलवान नाम के अनुसार ही उस गाव के बड़े पहलवान थे। सारे गाव के पहलवान उनके अंदर शिक्षा लेते थे। और शिक्षा प्राप्ति के बाद अलग अलग जगहों पर अपने गुरु का नाम रोशन करते थे।कभी मारपीट, डकैती तो कभी छीना छपटी में। गुरु बद्री को अपने शिष्यों का उद्धार करने के लिए कई सारे ज़िलों के थानो का चक्कर लगाना पड़ता था। कुछ खर्चा पानी थमा आते थे उनके हाथों में चुपके से। और आते समय अपने आज़ाद शिष्यों से उनके कुकर्मों की कमाई का भार अपने सर उठा लाते थे। गाव के छोटे पहलवान भी उन्ही के शिष्यों में से एक थे। छोटे पहलवान और उनके पिता की आपस में खूब मार कुटाई और गाली गलौच होती थी। एक बार इसी झगड़े में उन्होंने अपने पिता जी का सर फोड़ दिया था। जिसकी शिकायत लेकर वो वैद्य जी से लेकर पंचायत तक गए। जब पंचो ने उनके व्यवहार को लेकर छोटे पहलवान के पिता को भला बुरा कहना चालू किया तो छोटे पहलवान तैश में आ गए। मेरे बाप को मैं चाहू कुछ भी बोलूँ, बाहर वाले तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गई मेरे पिता को भला बुरा कहने की। हालाँकि छोटे पहलवान और उनके पिता के ख़ानदान में ये बाप बेटे की आपस की मार कुटाई और गाली गलौच की व्यवस्था कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।(book shorts)
वैद्य जी के दूसरे पुत्र थे रुप्पन बाबू। कक्षा दसवी से ग़ज़ब की मुहब्बत। उसी मुहब्बत के चक्कर में कक्षा दस को पार कर आगे निकल नही पाए। उनके पुराने साथी सहपाठी कब के कालेज में पहुँच चुके थे। आस पास के गाव के आवारा लड़कों पर उनकी पकड़ अच्छी थी। और उनके दम पर अपने को छात्र नेता कहलवाते थे। रुप्पन बाबू और बद्री पहलवान गाव की एक ही लड़की को पसंद करते थे। परंतु दोनो ही एक दूसरे के पसंद से ना वाक़िफ़ थे। हालाँकि जो चिट्ठी बद्री पहलवान के लिए छत पर फेंकी जाती थी। उसे रुप्पन बाबू अपने लिए समझ कर घुमा फिरा करते थे। हालाँकि रुप्पन को अपने पिता के गतिविधियों से ज़्यादा उनके विरोधियों से अधिक सहानुभूति थी। स्कूल के प्रिन्सिपल जो वैद्य जी के टीम के अहम प्लेअर थे, उनका विरोधी ख़ेमा था खन्ना मास्टर एंड पार्टी। खन्ना मास्टर और प्रिन्सिपल के बीच में हमेशा तू तड़क चली आ रही थी।
रंगनाथ शहर से पढ़कर कुछ दिनो के लिए गाव में स्वास्थ लाभ के लिए वैद्य जी के शरण में आए थे। रंगनाथ वैद्य जी के भांजे थे। जिन्होंने शहर में PHD में अभी अभी अड्मिशन लिया था। बीच में कुछ तबियत ख़राब रहने लगी तो वैद्य जी ने कुछ महीनो के लिए उन्हें अपने पास बुला लिया था। रंगनाथ और रुप्पन की आपस में बहुत बनती थी। पढ़े लिखे होने के कारण रंगनाथ की गाव में पूछ भी ज़्यादा थी।
इस गाव में वैद्य जी के एक ही दुश्मन थे रामाधीन। गाव के लोग और वैद्य जी के अनुसार रामाधीन पहले कलकत्ता में अफ़ीम के सप्लायर थे। इधर से अफ़ीम लेकर उधर करते थे। परंतु एक बार अंग्रेज़ी सरकार के हत्थे पड़ गए। जेल में उनके झूठे गर्व और पैसों का चूरा निकल दिया गया। जेल से छूटते ही सबसे पहले भाग कर वो अपने गाव आए। बचे खचे पैसों के दम पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करने लगे। इसी कोशिश में बहुत सारे लोग उनके टीम के सदस्य भी बन गए थे। इसी के दम पर पिछले कुछ सालो से गाव का प्रधान उनकी ही टीम का आदमी बने जा रहा था। वैद्य जी के सहकारी मैनज्मेंट और स्कूल मैनज्मेंट को छीनने की लगातार कोशिश की जा रही थी। इस कोशिश के पीछे रामाधीन का ही हाथ था।(book shorts)
पूरी कहानी इसी गाव, इसके लोग और इसकी राजनीति के इर्द गिर्द घूमती है। जहाँ तक लग रहा है- इस कहानी के बहुत सारे हिस्से को ऊपर दिए गए किरदारों के परिचय द्वारा दे दिया गया है। किताब पढ़ने लायक़ है। जिसमें हर पैराग्राफ़ हर लाइन में व्यंग कूट कूट कर समाया हुआ है। जो रह रह कर आपके होंठों पर मुस्कुराहट के रूप में बिखर जाते है।
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